मनोरंजक कथाएँ >> कपटी बिलाव कपटी बिलावआनन्द कुमार
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कपटी बिलाव और अन्य 4 कहानियाँ ...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
1.मूर्खों का राजा
घोंघापुर नामक गाँव में एक ब्राह्मण रहता था। वह जन्म से ही मूर्ख था;
लेकिन अपने को बड़ा बुद्धिमान समझता था। लम्बी चौड़ी बातें
हाँकने
में और बे-सिर-पैर की बातें सोचने में उसकी बराबरी करने वाला कोई नहीं था।
बैठे-बैठे वह बहादुरी की बातें सोचता था और कमरे में ही उछल-कूद मचाता था।
कभी-कभी हाथ में तलवार लेकर वह उसको कमरे ही में भाँजने लगता और कभी मन में विश्वास कर लेता था कि वह शत्रुओं के साथ लड़ाई के मैदान में घमासान युद्ध कर रहा है। तलवार से कभी दो-चार मक्खियाँ कट जातीं तो वह समझता कि शत्रु लड़ने आया था। वह जागते हुए भी अपने देखने का आदती बन गया था।
उसके बाप ने उसका नाम कुछ और रखा था, लेकिन गाँववाले उसको मूर्खराज कहते थे। जब तक मूर्खराज का बाप जीवित था तब तक वह बहुरूपिया बनकर लोगों की दृष्टि में अपने को बड़ा बनाने की चेष्टा करता रहा।
दुर्भाग्य से उसके पिता एक दिन स्वर्गवासी हो गए। कुछ दिनों तक मूर्खराज बाप की छो़ड़ी हुई कमाई से गुजर-बसर करता रहा। जब घर में कुछ न रहा तो वह एक समय उपवास करने लगा। घर में बैंगन खाकर बाज़ार में डकार लेता और लोगों को कहता कि हलुए का अजीर्ण हो गया है या सेर भर कलाकन्द खाने से पेट भारी हो गया है। धीरे-धीरे ऐसे दिन भी आए कि मूर्खराज को एक वक्त का खाना मिलना मुश्किल हो गया। वह न तो पढ़ा-लिखा था, न चतुर था और न भले आदमियों में उठना-बैठना ही जानता था। इसलिए उसने निश्चय किया कि भीख मांगकर किसी तरह प्राण बचाने चाहिए। किसी ने उसको सिखा दिया था कि भिक्षा माँगना ब्राह्मणों का परम धर्म है। मूर्खराज बड़े अभिमान से भीख माँगने लगा। भिखारी होने पर भी उसकी पुरानी आदतें न छुटीं। चीथड़े पहनकर भी वह मन-ही-मन अपने को बादशाह समझकर कभी दरबार लगाता, कभी सरकारी हुक्म सुनाता।
कभी-कभी हाथ में तलवार लेकर वह उसको कमरे ही में भाँजने लगता और कभी मन में विश्वास कर लेता था कि वह शत्रुओं के साथ लड़ाई के मैदान में घमासान युद्ध कर रहा है। तलवार से कभी दो-चार मक्खियाँ कट जातीं तो वह समझता कि शत्रु लड़ने आया था। वह जागते हुए भी अपने देखने का आदती बन गया था।
उसके बाप ने उसका नाम कुछ और रखा था, लेकिन गाँववाले उसको मूर्खराज कहते थे। जब तक मूर्खराज का बाप जीवित था तब तक वह बहुरूपिया बनकर लोगों की दृष्टि में अपने को बड़ा बनाने की चेष्टा करता रहा।
दुर्भाग्य से उसके पिता एक दिन स्वर्गवासी हो गए। कुछ दिनों तक मूर्खराज बाप की छो़ड़ी हुई कमाई से गुजर-बसर करता रहा। जब घर में कुछ न रहा तो वह एक समय उपवास करने लगा। घर में बैंगन खाकर बाज़ार में डकार लेता और लोगों को कहता कि हलुए का अजीर्ण हो गया है या सेर भर कलाकन्द खाने से पेट भारी हो गया है। धीरे-धीरे ऐसे दिन भी आए कि मूर्खराज को एक वक्त का खाना मिलना मुश्किल हो गया। वह न तो पढ़ा-लिखा था, न चतुर था और न भले आदमियों में उठना-बैठना ही जानता था। इसलिए उसने निश्चय किया कि भीख मांगकर किसी तरह प्राण बचाने चाहिए। किसी ने उसको सिखा दिया था कि भिक्षा माँगना ब्राह्मणों का परम धर्म है। मूर्खराज बड़े अभिमान से भीख माँगने लगा। भिखारी होने पर भी उसकी पुरानी आदतें न छुटीं। चीथड़े पहनकर भी वह मन-ही-मन अपने को बादशाह समझकर कभी दरबार लगाता, कभी सरकारी हुक्म सुनाता।
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